Friday 9 May 2008

संवेदनाहीन मुम्बईकर


मुलुंड में एक छात्र का सडक पर एक्सीडेंट हो गया । सही वक्त पर मदत नही मिलने से इंजीनियरींग पढनेवाले छात्र को अपनी जान से हाथ धोना पडा। पादचारी को बचाने के प्रयास में महज 20 साल का वो युवक 45 मिनिट खून में लथपथ मौत से जुझता रहा, लेकिन आखिर जीत हुई मौत की ही । उस युवक को मदत करने के लिए एक इन्सानियत जागी भी लेकिन जरूरत थी और हाथों की मदत की। संवेदनाहीन मुंबईकरों ने अपनी व्यस्तता का झुठा नकाब नही उतारा, किसी भी पिता,मां भाई या बहन का दिल नही पसीजा उस युकक को जीवनदान देने के लिए। कोई गाडी नही रूकी उसकी बंद होती सांसो को बचाए रखने के लिए । हां तमाशबिनों को वक्त तो जरूर मिला लेकिन सिर्फ तमाशा देखने के लिए। जीवनदाता के रूप में कोई हाथ आगे नही बढा।

कुछ दिन पहले ऐसेही एक वाकया सामने आया था जब फर्स्ट क्लास के एक कम्पार्टमेंट में खून में लथपथ एक महिला निर्वस्त्र बेहोश पडी थी। ट्रेन सीएसीटी से लेकर कल्याण पहूंची और फिर कल्याण से सीएसटी लेकिन महिला निर्वस्त्र स्थिती में ही थी। किसी महिला ने उसपर एक कपडे का टूकडा डालने की जहमत नही उठाई पुलिस को इत्तला भी की गयी लेकिन उनकी भी संवेदनाएं नही जागी क्योंकी उनके पास महिला सिपाही नही थी।
शराब पिकर रईसजादे गरीब मजदुरों को अपनी गाडीयों से कुचलते ही जा रहे है और पैसे की शय पर आजाद घुम रहे है। मासुमों पर बलात्कार करनेवाले वहशी दरिंदे अपनी हवस की भुख मिटाने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाकर अपना शिकार ढूंढते रहे है। प्रेम जैसे पवित्र भावना से खिलवाड करनेवाले प्रेमियों की भी कमी नही, जिस प्यार के लिए जीने मरने की कसमें खाते है उसी प्यार पर वार करने से नही चुंकते ।
क्या सचमुच मुंबईकर संवेदनाहीन बन गये है। पैसा और एहम इन्सानियत पर हावी हो रहा है। या इन्सान अपने आपको परिपुर्ण समझने की भुल कर बैठा है। उसे क्यों ऐसा लगता है की उसे कभीभी किसी प्रकार के मदत की आवश्यकता नही पडेगी। अगर जिंदादिल शहर दिलों को जीते जी ही मरने पर मजबूर कर रहा हो तो मुंबईवासी इस बात पर जरूर सोचिए की आप अमिर हो या गरीब जागिए,अंतरआत्मा को झंझोडिए क्योंकी ऐसा ना हो की कल आपका हाथ मदत मांगे और आपके हाथ निराशा लगे........

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