Wednesday 21 May 2008

सावन आयो रे....


आज सुबह सुबह ऑफिस जाने के लिए हमेशा की तरह निकल पडी, रात भर गर्मी की वजह से फ्रेशनेस बिल्कुल नही थी, मारे गरमी के गुस्सा, चिडचिडपना सीमाएं लांघ रही थी। जबसे गरमी का मौसम शुरू हुआ है रोज बस यही हाल होता है। बस में बैठने के बाद एहसास हुआ कि आज तो बादल घिर आए है, कहीं न कही तो बारीश की बौछारे जरूर गिरी होंगी, जैसे तैसे स्टेशन पहुंची, ट्रेन में प्रवेश भी कर लिया । सुबह सुबह आमतौर पर महिलाए थोडासा कम ही बातें करती है। कई सारी महिलाएं झपकियां ले रही थी,कोई पढ रही थी तो कोई बाहर का नजारा देखने में मशगुल थी। मेरे सामने के बेंच पर एक छात्रा और एक महिला झपकिया ले रही थी। आज थोडी गरमी कम होने का एहसास हुआ तभी खिडकी से बारीश की एक बुंद ने चेहरे को छुआ। बाहर झांक कर देखा तो हल्की सी बूदा बांदी हो रही थी । मन प्रफुल्लीत हो उठा, मेरे सामने झपकियां लेने वाली छात्रा मन ही मन मुस्कुराने लगी, महिला ने मेरी और देखकर एक स्मित हास्य किया । बारीश की कुछ बूदों ने सारे तनाव को उडन छू कर दिया। और आंखो के सामने ऐश्वर्या डोलने लगी... बरसो रे मेघा मेघा.... और मुड हो गया एकदम फ्रेश.....

Saturday 17 May 2008

राजनीति वडापाव की


'वडापाव' मुंबईकरों की पहली पसंद. मुंबईमें आनेवाला कोई भी इंसान कभी भुखो नही रह सकता. गरीब हो या अमिर वडापाव खाने की चाहत सभी को होती है. लेकीन अब इस वडापाव के भाग्य बदलने जा रहे वडापाव की राजनीती इतनी गरमाती जा रही है की इसका नामकरण अब हमारे शिवाजी महाराज के नाम से किये जाने की घोषणा की गयी है। अगर वडापाव का नाम 'शिववडा' हो जाये तो आम लोग कैसे खायेंगे. पहले तो गरीब तबकेसे आनेवाले कई लोग इसे खरीदनेसे कतरायेंगें क्योंकी फिर एकबार राजनीती की चक्कीमें वे कतई पिसना नही चाहेंगे. शिववडा मांगा और फिर एक बार मराठी अस्मिता का मुद्दा बन गया तो लेने के देने पड जायेंगे.अब गरीबों के मुंह का खाना छिनने से भी यह राजनितीज्ञ कतरा नही रहे है. मुगल साम्राज्य को खदेडकर हिंदवी स्वराज्य का निर्माण करनेवाले महापुरूष का नाम वडापाव बनने जाएगा इससे बडी शर्मनाक बात कोई दुसरी हो ही नही सकती. राजनितीज्ञ इतनी हदतक गिरे जा रहे की उनको पता भी नही चल पा रहा है की लोगों की भावनाओं से खेलकर वे कतई कामयाब नही हो पायेंगे.चाहे वो लोगों की भलाई के लिए किया गया दिखावाही क्यों न हो.वडापाव मुंबईकरों का खाना है और उसे महज खाना ही रहा दिया जाए तो बेहतर होगा. आम मुंबईकरों को मेहनत करने के बाद दो निवाला सुकून का चाहिए नाकि राजनिती के खेल का मोहरा बनना.अन्नपूर्णा ही सबकी इच्छा पूरी कर सकती हैं।

Saturday 10 May 2008

सहकर्मियों का ओछापन


पुरूष सहकर्मियों के ओछेपन की बातें तो सुनी थी , कई बार अनुभव भी हुआ. कई सारे पुरूषो में एक अकेली महिला को बेचारी समझने का ओछापन सहकर्मी करते रहते है। अकेली महिला क्या कर सकती है, तो सब मिलकर उसे चुप कराने के प्रयास में लगे रहते है। महिला के आने जाने का समय, उनका रहन सहन, किन किन लोगों के साथ उसका उठना बैठना होता है इन सब बातों पर कौऐ जैसी नजर वे गडाए रहते है। मुँह में राम बगल में छुरी रखकर बातें करने वाले यह सहकर्मी, महिला सहकारी से हमदर्दी जताने से भी नही चुंकते। दरअसल बेचारे तो वो खुद ही होते है, महिला से प्रतियोगिता करना उनको हजम नही होता। काम के प्रति लापरवाही, चायपानी के नाम पर घंटो कौंटिन में बीताना उनकी कमजोरी हो जाती है । दरअसल ये बाते सभी लोगों पर लागू नही होती लेकिन पुरूष मानषिकता का असर नये मित्र बनाते वक्त जरूर पडता है। पर एक अच्छा मित्र ओछी मानसिकता वाले पुरूषों की कुटनीति को जड से उखाडने में जरूर मददगार साबित होता है। कई महिला कर्मियों को इस बात का अनुभव जरूर आता होगा। बेहतर होगा अपने आप को इतना सक्षम बनाना होगा कि इनको एक ना एक दिन मुँह की जरूर खानी पडे।

Friday 9 May 2008

कपडो का अलग अंदाज


कपडे हम सभी पहनते है. सभी को अच्छा लगता है अलग अलग पहनावा करना.जिस तरह फॅशन की डिमांड हो उस तरह का पहराव करना कईयों को भाता भी है.पहराव करना अलग बात है लेकिन आजकल हम रास्ते पर चलते है तो सडक पर लगे बैनर , पार्टीयों के झंडे, लंबे से लंबे होर्डींग्ज का भरमार लगी होती है जिसे बनाने के लिए पार्टी लाखो रूपये खर्च कर रही है .अपने अपने पार्टीयों का झंडा बुलंद करने के लिए कपडो का भरमार रास्तों पर लगा दे रही है, क्या इसे झंडे और बॅनर के जरीए शक्तीप्रदर्शन नहीं कहा जा सकता है, आम इंसान को इसके बारे में शायद पता नही होगा, उसे इससे क्या लेना देना होगा. बस कपडे पर लिखे अक्षरों को पढना या देखकर आगे बढना यही उसकी आदत बन गयी है. झंडो और पार्टी की प्रसिद्धि के लिए कपडे का गलत इस्तेमाल करना कहाँ तक उचित होगा, जबकि कई ऐसे लोग है जिनको तन ढकने के लिए भी कपडे नसीब नही होते.क्या राजनितीक पार्टीयों के प्रमुखों को इस बारे में विचार नहीं करना चाहिए. वे इसे उचित नहां समझते . अपने शक्तीप्रदर्शन करने की होड में लगी राजनितीक पार्टीयां शहर की खूबूसूरती तो बिगाड ही रही है लेकीन अपने कर्तव्य के प्रति भी जागरूक नही है, मै भी आम इंसान की तरह इन कपडों की हो रही बर्बादी को चुपचाप दख रही हूं आप ही की तरह.

संवेदनाहीन मुम्बईकर


मुलुंड में एक छात्र का सडक पर एक्सीडेंट हो गया । सही वक्त पर मदत नही मिलने से इंजीनियरींग पढनेवाले छात्र को अपनी जान से हाथ धोना पडा। पादचारी को बचाने के प्रयास में महज 20 साल का वो युवक 45 मिनिट खून में लथपथ मौत से जुझता रहा, लेकिन आखिर जीत हुई मौत की ही । उस युवक को मदत करने के लिए एक इन्सानियत जागी भी लेकिन जरूरत थी और हाथों की मदत की। संवेदनाहीन मुंबईकरों ने अपनी व्यस्तता का झुठा नकाब नही उतारा, किसी भी पिता,मां भाई या बहन का दिल नही पसीजा उस युकक को जीवनदान देने के लिए। कोई गाडी नही रूकी उसकी बंद होती सांसो को बचाए रखने के लिए । हां तमाशबिनों को वक्त तो जरूर मिला लेकिन सिर्फ तमाशा देखने के लिए। जीवनदाता के रूप में कोई हाथ आगे नही बढा।

कुछ दिन पहले ऐसेही एक वाकया सामने आया था जब फर्स्ट क्लास के एक कम्पार्टमेंट में खून में लथपथ एक महिला निर्वस्त्र बेहोश पडी थी। ट्रेन सीएसीटी से लेकर कल्याण पहूंची और फिर कल्याण से सीएसटी लेकिन महिला निर्वस्त्र स्थिती में ही थी। किसी महिला ने उसपर एक कपडे का टूकडा डालने की जहमत नही उठाई पुलिस को इत्तला भी की गयी लेकिन उनकी भी संवेदनाएं नही जागी क्योंकी उनके पास महिला सिपाही नही थी।
शराब पिकर रईसजादे गरीब मजदुरों को अपनी गाडीयों से कुचलते ही जा रहे है और पैसे की शय पर आजाद घुम रहे है। मासुमों पर बलात्कार करनेवाले वहशी दरिंदे अपनी हवस की भुख मिटाने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाकर अपना शिकार ढूंढते रहे है। प्रेम जैसे पवित्र भावना से खिलवाड करनेवाले प्रेमियों की भी कमी नही, जिस प्यार के लिए जीने मरने की कसमें खाते है उसी प्यार पर वार करने से नही चुंकते ।
क्या सचमुच मुंबईकर संवेदनाहीन बन गये है। पैसा और एहम इन्सानियत पर हावी हो रहा है। या इन्सान अपने आपको परिपुर्ण समझने की भुल कर बैठा है। उसे क्यों ऐसा लगता है की उसे कभीभी किसी प्रकार के मदत की आवश्यकता नही पडेगी। अगर जिंदादिल शहर दिलों को जीते जी ही मरने पर मजबूर कर रहा हो तो मुंबईवासी इस बात पर जरूर सोचिए की आप अमिर हो या गरीब जागिए,अंतरआत्मा को झंझोडिए क्योंकी ऐसा ना हो की कल आपका हाथ मदत मांगे और आपके हाथ निराशा लगे........

गणपति की धूम


Thursday, September 13, 2007...मुंबई गणेशोत्सव की तैय्यारी में व्यस्त है,और पुलिस भगवान की सुरक्षा में। आतंकीयों का डर भगवान को भी है। गणपती बाप्पा भलेही दस दिनों के मेहमान नवाजी का लुत्फ उठाते है,लेकिन इन्ही दस दिनों के लिए ही करोडो रूपये के वारे न्यारे होते है। कुछ सालों पहले गणपती मंडल लिमीटेड होते थे और चंदा भी होता था ग्यारह,इक्कीस या इक्यावन रूपये का अब यह आंकडा हजारो की संख्यां में है,अगर नही दिया तो सामना करना पडता है गुंडागर्दी का। आए दिन कुकुरमुत्ते की तरह पैदा होने वाले यह मंडल क्या सचमुच गणेशभक्त होते है ये सवाल अभी बरकरार है
स्पर्धा के इस युग में उंची से उंची गणेशमुर्तीयां बनवाना मंडल की प्रेस्टीज का विषय होता है। पर्यावरण को इससे हानी पहुंचे तो क्या इन मंडल के कार्यकर्ताओं के पास जवाब है की भगवान से भला कोइ प्रदुषण फैलता है। मुंबई महानगर पालिका ने भी अपील की की गणेश मुर्तीयां 8 फीट से बडी होगी तो उसे स्पर्धा में शामील नही कीया जाएगा,लेकिन मंडलों की नाराजगी ने ही प्रदुषण फैलाया और बीएमसी ने पर्यावरण की प्राथमीकता को कोई खास तवज्जो नही दी। आखीर सत्ता में बने रहने की चिंता उन्हे भी है। यह बात भी सच है की मुर्तीयां बनाने वाले हजारों लोगो का भरणपोषण इसी उत्सव पर निर्भर होता है। लेकिन समुद्र में फैल रहे प्रदुषण की वजह से मछलीयां मर जाती है,जिसकी वजह से मछुवारों पर भी अब भुखो मरने की बारी आयी । गणेशोत्सव के लिए इकठ्ठा किए गए चंदे का लेखा जोखा होता तो है, लेकिन जमा पैसे का कितना बडा हिस्सा कारगर कामों पर खर्च किया जाता है इसके उदाहरण उंगलीयों पर गिने जा सकते है। लाखों रूपये का चढावा चढाने वाले भक्त भी केवल सोने-चांदी की भेट देकर बाप्पा को धन्यवाद देते है,लेकिन गरीब और अनाथों के लिए मदत देने से इनके धन में इजाफा नही होता जो बाप्पा को देने के बाद होता है। चढावे के पैसे का कितना सही उपयोग होता है या उन पैसे या चढावे का क्या अंजाम होता है इनसे भक्तों को कौई सरोकार नही है क्योंकी भगवान के मामले में तेरी भी चुप और मेरी भी चुप. बुध्दी के इस देवता के सजावट के लिए जगमगाहट ना हो ऐसे तो हो ही नही सकता । भलेही महाराष्ट्र में पंधरा पंधरा घंटे का लोडशेडिंग हो और किसानो की फसल बिजली और पानी के अभाव के चलते चौपट हौ जाए ।मुंबई में तो दस दिनो में ही सालभर लगने वाली बिजली की खपत हो जाती है और बिजलीचोरों की महारथ तो ऐसे की तो प्रशासन के नाक के निचे ही वे अपना गोरखधंदा बिनदिक्कत चला रहे है। करोडो रूपये के इस उत्सव में चाहे हत्याएं हो, हप्तेबाजी हो,किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला जारी रहे,बालमजदुरी का जहर फैलता रहे, बलात्कार की घटनाएं आम होती जाएं लेकिन गणोशोत्सव की धूम जारी रहेगी पुरे आनंद और उत्साह के साथ...

स्वागत है आपका


कुछ आप कहें कुछ हम तब जाकर इस जमाने से कदम से कदम मिला कर जमाने से जंग लड़ी जा सकती है। फिलहाल हर जगह एक ही बातें हो रही कि सरकार ने अपनी नकारापन साफ जाहिर किया है। एक आदर्श स्थापित करने का हौसला रखना होगा तभी जाकर के कुछ अपनी भी जिम्मेवारियों का निर्वहन हो सकेगा भले ही वो एक हों या बहुतेरी हों। जलेम ते हम एक दूसरे से सहयोग करने के लिए तैयार हो जाए और कदम से कदम मिला ले , हो सके तो अपने सारे गिले शिकवे को भी भूल जाए।